Monday, May 16, 2011

Fwd: चंद सवाल रह गए थे बादल दा



---------- Forwarded message ----------
From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2011/5/15
Subject: चंद सवाल रह गए थे बादल दा
To: deewan@sarai.net, deewan@mail.sarai.net


अंधेरे कमरों में लगातार फुसफुसाती, चीखती और सिर पीटती आवाजें. कथ्य को दिशा देनेवाली सभी घटनाएं प्रायः दृश्य से बाहर घटती हुईं. बीच-बीच में शांति के कुछ पल... कर्मकांडी उदासी और बोझिल परिवेश. बादल सरकार के नाटकों की याद आते ही कुछ निश्चित से दृश्य खिंच जाते हैं. ब्रह्म प्रकाश बादल सरकार के नाटकों को एक सही राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की है. उन्होंने बादल सरकारी की कथित क्रांतिकारिता और रचनात्मक प्रतिबद्धता की भी पड़ताल की है. ब्रह्म प्रकाश लंदन विश्वविद्यालय से जन कलाओं पर शोध कर रहे हैं और इसे पूरा करने की व्यस्तता के बावजूद उन्होंने मेरे अनुरोध पर बहुत झिझकते हुए यह लेख भेजा है.


बादल दा, जब अनायास ही एक साइट पर आपकी मृत्यु का समाचार पढ़ा तो थोड़ी देर के लिए भरोसा ही नहीं हुआ. भरोसा इसलिए भी नहीं हो पा रहा था क्योंकि आपसे करने के लिए चंद सवाल जो रह गये थे. हां, बादल दा एक इच्छा थी कि आपसे एक दिन जरूर मिलूंगा और मिल कर कुछ अटपटे और अनसुलझे सवाल करूंगा. वे सवाल जो असल में अनसुलझे नहीं थे, बल्कि आपने उन्हें उलझा कर रख दिया था. आपके वो उलझे सवाल हम जैसे बहुतों के मन में होंगे. खास कर जब भी आपका कोई नाटक देखा, सवाल करने की इच्छा उतनी ही तीव्र हुई. परंतु जब भी आपको लिखने के लिए सोचा, थोड़ी झिझक ने मुझे रोक लिया. यह जानते हुए भी कि आप नहीं रहे आज वे सवाल पूछ रहा हूं. सवाल इसलिए भी जरूरी हैं कि आपकी विरासत तीसरा रंगमंच (Third Theatre) के रूप में जिंदा है. आपके लिखे गये उन अनगिनत नाटकों में के रूप में. सवाल आप से भी हैं और आपके उन शागिर्दों से भी जो आपके नाटकों के गुणगान करते नहीं थकते. वैसे कुछ मामलों में, खास कर तीसरा रंगमंच को लेकर तो मैं खुद ही आपका गुणगान करता हूं.

आपसे और आपके तीसरे रंगमंच के बारे में मेरा पहला परिचय जेएनयू में तब हुआ जब मैं कैंपस आधारित नुक्कड़ नाटक समूह जुगनू से जुड़ा था. परिचय क्या था, प्रेरणा थी. तब आपके तीसरा रंगमंच का प्रशंसक हो गया था मैं. आप जिस खूबी से स्पेस का इस्तेमाल किया करते थे, अपने नाटकों में आपने जिस बारीकी से अभिनेताओं की देह (body) का इस्तेमाल किया था और उसमें एक नयी जान फूंक दी थी, वह पहली नजर में बहुत प्रभावशाली लगता था. जब चाहा आपने उसे पेड़ बना दिया, जब चाहा एक लैंप पोस्ट. खास कर जिस तरह से आपके एक चरित्र दूसरे चरित्र में बदल जाते थे और दूसरे चरित्र को आत्मसात कर लेते थे, वह काबिले तारीफ था. स्पेस और बॉडी का ऐसा मेल आधुनिक भारतीय रंगमंच में शायद ही किसी ने किया हो. आप सिर्फ रंगमंच को सभागार (auditorium) से बाहर ही नहीं लाये, आपने नुक्कड़ों और सड़कों को ही मंच (स्टेज) बना दिया. बुर्जुआ रंगमंच के सभागार को तो आपने ध्वस्त कर दिया. आपने यह साबित कर दिया कि पैसे और सभागारों से रंगमंच नहीं चलता, रंगमंच के लिए अभिनेता की देह, न्यूनतम स्पेस और दर्शक की कल्पनाशक्ति काफी है. आपका वह सवाल कि 'थिएटर करने के लिए कम से कम क्या चाहिए', नाट्यकर्मियों के लिए आज भी प्रेरणास्रोत है. एक चुनौती है. आपने जिस तरह से वस्त्र सज्जा (कॉस्ट्यूम) और साज सज्जा (मेक अप) को गैरजरूरी बना दिया और इस तरह कुल मिला कर नाटक के अर्थशास्त्र को बदल कर रख दिया वह हमारे समाज के संदर्भ में रेडिकल ही नहीं क्रांतिकारी भी था. आपने बुर्जुआ रंगमंच और रंगकर्मियों को उनकी सही औकात बता दी थी. इसके लिए देश के नाट्यकर्मी आपके कायल हैं. खास कर हमारे जैसे देश में आपके प्रयोग और भी अहम हो जाते हैं, क्योंकि यूरोप और अमेरिका की तरह रंगमंच अब भी यहां उद्योग नहीं है. कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ कर रंगमंच की कमान अब भी आम लोगों के हाथों में है. वही आम लोग जो बड़े बड़े थिएटर हॉलों में किए गए नाटकों पर घास भी नहीं डालते. आज भी उनके लिए थिएटर गांव के मेलों में शहर की गलियों और चौराहों पर है. उन्हें आनेवाले दिनों में भी मुफ्त का थिएटर ही चाहिए होगा, जो उनका वाजिब हक है.


पूरी पोस्ट हाशिया पर मौजूद है. इसे देखने के लिए क्लिक करें- http://hashiya.blogspot.com/2011/05/blog-post_15.html


--
Nothing is stable, except instability
Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ]



--
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

No comments: